कभी कभी आपको हरियाली भी ऊबा सकती है
और आप निकल पड़ते हैं
मरुभूमि को खोजने
नदी, नालों, पहाड़ों,
तालाब, झील और गाँव के पोखर को छोड़
रेगिस्तान की ओर
और खुश हो जाते हैं
एक नखलिस्तान को देखकर।
ऐसी ही खुशी की आस में
मैं भी निकल पड़ा अपने गाँव से
हाथ मे अटैची लिए
चप्पल फटकारते
ट्रेन के जनरल डब्बे में
शौचालय के पास
अखबार बिछाकर
चप्पल को तकिया बनाकर
लेटकर
सरपट दौड़ते
आसपास के हरियाली को मुझसे दूर भागते
टुकुर टुकुर ताकता रहा मैं।
हरियाली नदारद
खुद में खोयी बेशुमार भीड़
ऊँची इमारतों के जंगल
शायद शहर आ गया।
अब आ गया बड़े शहर में
तो फोटू भी खींच लूँ
डाल दूँगा सोशल मीडिया पर
कुछ लाइक्स के लालच में
पलभर को धौंस जमाने को
फिर तो वापस जाना है अपने गाँव
गले लगा लूँगा इस धरती को
दौड़ लगाउंगा पगडंडियों पर
गीली मिट्टी से रगड़कर
इत्मीनान से नहाऊंगा पोखर में
लेट जाऊँगा हरे-भरे मैदानों में
और रंग-बिरंगे परिंदों से भरे
नीले अम्बर को निहारूँगा घंटों।
वो राह तकते होंगे
लौट जाऊँगा मैं अपने पौधों के पास
सुबह सुबह काँधे पर गमछा डाले
क्यारियों में पानी डालूँगा
चिड़ियों के लिए
आँगन में दाने बिखेरूँगा।
लेकिन आज शहर में हूँ तो
जरा घूम लेता हूँ
बहुत रंगीन है यहाँ की फिज़ा
बहुत सारे रंग हैं
लेकिन हरा रंग गायब है।
~(Written By - Ashok Mandal)